गुरुवार, 20 जुलाई 2017

!! बेटी से अपने घर को रौशन करो, बेटी को घर का चिराग बनाओ !!

नन्ही-सी कोंपल अभी पनपी कि
काँटों ने उसको उखाड़ ही फेंका
न सुबकी,न रोयी बस वो तड़पी
लांध गए क्रूरता की सारी रेखा।

फिर से उसने नया कोख ढूँढा
इसबार बाहर की रोशनी देखी
पर चाहिए था घर का चिराग़
पालना बनी मंदिर की सीढ़ी।

कूड़े, झाड़ी, नाली से था बेहतर
कि उन्होंने उसे सीढी पर छोड़ा।
नौ महीने ख़ून से सींचने के बाद
जाने कैसे ममता ने नाता तोड़ा!

न सोच, न समझ, न दुनियादारी
बस स्पर्श व प्रेम की पहचान थी
लिपटने,सिमटने की आदत थी ही
गर्भ से निकलने से भी अनजान थी।

सिमटी, सकुचायी, सहमी,अकेली
प्रेमभरे आलिंगन के लिए तड़पती
माँ के दूध की बूँद तक न थी मिली
गले से आवाज़ भी कैसे निकलती।

रक्तिम-सा रंग, रूई-सी मुलायम
एक पुराने सूती कपड़े में लिपटी
रोते-रोते हो चुका था वो भी गीला
उसी में कल की जननी थी सिमटी।

तभी दो कदम ठिठके वहाँ आकर
जाँच लिया आसपास नज़र दौड़ाकर
एक नज़र आसमा वाले से मिलाया
ले गया कली को हृदय से चिपकाकर।


मानो बूढ़े माली के बूढ़े-से पेड़ पर
आ गयी हो अनायास कोई कली
वैसे ही रौनक़ से भर गया आँगन
हर पत्ती,हर डाली खिली-खिली।

वहाँ किसी को उसकी ज़रूरत नही
यहाँ था उसका इंतज़ार जाने कब से
इंसान कितनी भी कर ले कोशिश
बड़ा नही हो सकता कभी वो रब से।

नन्हें-नन्हें कदम, पायल की खनक
घर व जीवन में वो जीवन ले आयी
यूँ ही चहकते-महकते नन्ही कली
करने लगी थी अब पढ़ाई-लिखाई।

न माँ की तरह, न पिता की तरह
सबसे अलग उसने सूरत थी पायी
पर सीरत पे उसके तो माँ-बाप की
हूबहू उनसी ही  परछाईं थी आयी।

पढ़ लिखकर पैरों पर खड़ी हो गई
फिर कुछ अधूरा सा लगता था उसे
जैसे कोई हिस्सा उसका अलग हो
अपनाने के लिए विकल हो जिसे।

माँ को बतायी उसने मन की बात
कि अलग कुछ करने का मन है माँ
अनाथ बच्चे और बेसहार बूढ़ों की
ममतामयी माँ बनने का मन है माँ।

बेघर बचपन,बेसहारा बूढ़ों के लिए
उसने एक घर-सा आश्रम बनाया
माँ-बाप समझ रहे थे उसका मन
पर फिर भी उन्होंने कुछ न बताया।

एकदिन मंदिर की सीढी पर एक
दम्पत्ति सिर पटक-पटक रो रहे थे
बेटे ने घर से निकाल दिया था उन्हें
सीढ़ियों पे कुछ खोया ढूँढ रहे थे।

करुणा से भरी वो कोमल हृदया
दोनों को लेकर आ गयी अपने घर
बिठाकर, ढाँढस बँधाकर देखा जब
स्त्री को देख वो गयी सहसा ठिठक।

लग रहा था जैसे दर्पण हो सामने
ख़ुद को ही सफेद बालों में देखा
वही नैन-नख़्स,वही क़द-काठी औ
वैसी ही सिर पर सिलवटों की रेखा।

माँ ने उसे सब बता दिया सच-सच
पर मन में उसके कोई मलाल नही
उनकी हालत देख उमड़ी करुणा
बह गया उसमें हर ग़लत औ सही।

जननी की जननी बनकर पाला
पिता को भी छत व छाया बख़्सी
उँडेल दिया उसने सारा प्यार उनपर
जिसके लिए थी सीढ़ियों पर तड़पी।

खुल गए थे सारे राज फिर भी
रज़ामंदी से कुछ खुला नही था
धूल गए थे उसके सारे शिकवे
उनदोनों का अभी धुला नही था।

जो भी आता आश्रम में उसके वे
कहते बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ
बेटी से अपने घर को रौशन करो
बेटी को घर का चिराग बनाओ।

ये चिराग कभी घर जलाएँगे नही
शुरुआती लौ को हवा से बचाओ
लड़खड़ाने से पहले ही थाम लेंगी
एकबार उन्हें खड़ा होना सिखाओ।

करुणा,वत्सलता बचाने के लिए
बेटी को तो हमें बचाना ही होगा
संतति व संस्कृति बचाने के लिए
बेटी को तो हमें पढ़ाना ही होगा।

अगर छोड़ते रहे बेटियाँ सीढ़ियों
नाली, कूड़े और रास्ते पर यूँ ही
तो इन्ही जगहों पर ही भटकेगा


बुढ़ापा गिरता-संभलता ख़ुद ही।

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