शनिवार, 28 अप्रैल 2018

!! शहर नहीं होता था गाँव बसेरा !!


नीम के पेड़ से झाँकता चाँद 
स्कूल के ऊपर से उगता सूरज 
आँगन में सजे लटकते सितारे 
सोती थी शबनम बग़ीचे हमारे। 

खेतों से बहके आती वो पुरवैया 
तालाब किनारे पीपल की छैयाँ  
कभी न सूनी होनेवाली सड़कें 
बढ़ती थी प्रीत वाक़ई लड़ के।

हर कोई जाने हर किसी को 
नाम ही होता था पूरा पता 
एक के सुख-दुःख हालात 
दूसरा देता था सहज बता।

कोई किसी से माँग ले मदद 
तो कोई किसी को हाथ बँटा दे 
एक के रास्ते जो आए रोड़ा 
चार पहुँचकर उसको हटा दे।

हकीकत से दूर दिखती ये बातें 
ये सपना नहीं बचपन था मेरा 
होते थे हम बड़े सीधे और सच्चे 
शहर नहीं होता था गाँव बसेरा।

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