शनिवार, 16 मई 2020

मैं दिहारी मज़दूर, मैं बिहारी मज़दूर


मैं दिहारी मज़दूर
मैं बिहारी मज़दूर

प्रधानमंत्री कहते सवा सौ करोड़ देशवासियों की बात। पर समाचार वाले कहते बिहारी मज़दूर। हम हिंदुस्तानी नहीं। हम बिहारी हैं। जहां है वो रखना न चाहता जहां के है वो लेना न चाहता।

हिंदुस्तान में  हम बिहारी मज़दूर कहलाते बिहार में कहते हैं प्रवासी मज़दूर।

कहाँ के हैं हम वासी मज़दूर?

कोई कहता हमारे यहाँ आए क्यों?
कोई कहते गए क्यों थे अपना गाँव छोड़?

शौक़ था क्या साहिब?

आप भी तो जाते हो अमेरिका इंग्लैड

पर आप उड़कर आते हो
लाए जाते हो
पर हम

छोड़ो हमारी औक़ात नहीं ये पूछने की


मज़दूर भी कहाँ रहे मजबूर कहो साहिब।

पैदल चलने को मजबूर। जंगल खेत लांघने को मजबूर। नदी पार करने को मजबूर।

मीलों छाला लिए पाँवो में न रूकने को मजबूर। ट्रेन का सफ़र साइकिल से तय करने को मजबूर।

पटरी पर सो गए तो सबने बहुत ज्ञान दिया। जाहिलों पटरी सोने की जगह होती है क्या?
वहाँ सोओगे तो ऐसा होगा ही?

ज्ञानी साहिब लोग इसबार तो सड़क पे थे। फिर क्यों?
ट्रक को भी भी पता था क्या कि ये दिहारी हैं, बिहारी हैं, अपने पराए सब सरकार पे भारी हैं?

हम नहीं कहते कि हमें वन्दे मातरम कर हवाईजहाज़ से लाओ। हमें हमारी हैसियत में रहने आता है। पर कुछ तो हो।

बच्चे पीठ पर लादे ज़्यादा चला नहीं जाता पर रूके भी तो कहाँ किस आस में।

मेहनत पे तो सवाल मत ही उठाना कम-से-कम। अरे बैलगाड़ी में बैल के साथ खुद जुतकर हम अपने घरों को चल रहे हैं।

ये शहरों की गालियाँ किनारे जहां खड़े होकर तुम पानी पूरी बड़ा पाव चाट से अपने जीवन में मसाला भरते थे। वो सब तो फिर तुम्हें मिल ही जाएगा। अरे पैसे हैं तुम्हारे पास। पैसे से सब हो जाता है। पैसे होते तो हम भी सड़क पे नहीं होते। होते कहीं लाइव कविता कहानी पढ़ते। ज्ञान देते लेते।

ठीक है आपके पास घर पैसा खाना है। तो करो लाइव। हमें क्या दिक़्क़त। शायरी पढ़ते पढ़ते मन उकता जाए तो न्यूज़ में हमें भी देख लेना।

कुछ नहीं तो कविता के लिए ही कुछ करुण रस मिल जाए।


ये बीमारी जब ख़त्म होगी। कभी तो होगी न। चाहे हमारे ख़त्म होने के बाद ही। फिर से रिक्शा  पर चढ़ोगे तो मुझे याद करोगे।

क्यों करोगे? फिर कोई न कोई बिहारी अपने गाँव से शहर रिक्शा चलाने आ ही जाएगा। जाएगा भी तो बेचारा कहाँ? अरे आत्म सम्मान के लिए भी पेट में रोटी चाहिए न। अब भूखे पेट कैसे ग़ुरूर दिखायेंगे। आप चिंता न करो हम फिर शहर आएँगे, फिर ठेला लगाएँगे,रिक्शा भी चलाएँगे, टिफ़िन भी पहुँचाएँगे, हम बिहारी मज़दूर हैं भला और कहाँ जाएँगे।

हँ हम न भी बचे तो बहुत हैं हमारे यहाँ और आएँगे। आपकी अट्टालिका बनाएँगे। गरम खाना खिलाएँगे।


ग़ुस्सा क्यों हो रहे हो? हमने कब कहा कि हम एहसान कर रहे हैं? हमें पता है कि तुम पैसे देते हो हर काम के बदले?

हमें काम भी चाहिए पैसा भी चाहिए
हम फिर आएँगे, हम फिर सिर झुकाएँगे

हमारे यहाँ दोनों में से कुछ भी नहीं। हम कहाँ जाएँगे।

कोई रोके नहीं
कोई बुलाए नहीं
ये सड़क भी सलामत
घर हमें पहुँचाये नहीं

हम दिहारी मज़दूर
हम बिहारी मज़दूर

हम दिहारी मजबूर 
हम बिहारी मजबूर 

हम फिर शहर आएँगे।





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