लाल गुलाबी रंगो से निकल
ये प्रेम पवन में जो घुल जाता
साँसों से सबके भीतर समाकर
भीतर तक बस प्रेम भर आता।
प्रेम तो होता है अनंत अथाह
फिर उसको सीमा में बाँधें कैसे
किसी के कोई प्रेम करे तो फिर
उसदिल में घृणा रह सकती कैसे?
दिल में कोई एक ही रह सकता
दोनों का होना छलावा ही होता
जब प्रेम से भरे दिल किसी का
वो तो सदा प्रेम रंग में ही रहता।
मीरा को देखें या शबरी को देखें
प्रेम हृदय में तो बस प्रेम ही सही
किसी से प्रेम औ किसी से नफ़रत
प्रेम की होती ये फ़ितरत तो नहीं।
फूल ख़रीदे प्रेमी के लिए और
बेचनेवाले बच्चे को झिड़क जाए
चोकलेट छुपा ले कि कहीं बाहर
माँगनेवाला बच्चा न मिल जाए।
किसी से मिलने की जल्दी में कोई
भला किसी को झटक सकता कैसे
इस झटकन में प्रेम छलकता नही
हृदय में नही कहीं और रहता जैसे।
रास्ते में निगाहों से रौंदा कितनों को
फिर प्रेमिका संग प्रेम परवान चढ़ता
मन में मलीनता के ऐसे बादल छाए
तो भला कैसे प्रेम का चंद्र निकलता?
कुछ देकर जो जाए जगाया सच में
उसे ही वो पाक प्रेम कहते हैं क्या?
बिना लिए दिए बिना कहे सुने भी
कभी प्रेम प्रकट कर सकते हैं क्या?
प्रेम की मूरत माँ ने कभी हमसे
कुछ ले देकर प्रेम जताया क्या?
अपने जायों से अधिक कोई भी
किसी को प्रेम कर पाया है क्या?
प्रेम को प्रेम ही क्यों न रहने दे
कुछ रंगों भर में क्यों सिमटाना
प्रेम विशाल गगन से भी ज़्यादा
काजग में लपेट क्यों बौना बनाना?
प्रेम का उसूल ही है समर्पण
लेन-देन तो व्यापार में है होता
ऐसी एक प्रेमिका मिली सबको
सारा जहाँ जिसे है माँ कहता।
प्रेम हो तो वैसा ही हो गहरा
जो आँखों से दिल को पढ़ ले
बताने-जताने की ज़रूरत नहीं
हमारे मन की हमसे पहले कह दे।
प्रेम शाश्वत और सदा ही नवीन
जन्म-जन्मांतर तक है ये चलता
हर दिन घटे-बढ़े वो कुछ और है
जो कुछ-कुछ प्रेम-सा है लगता।
प्रेमदिवस पर सच्चा प्रेम मिले
हर साल जिसकी सूरत न बदले
मीरा को श्याम मिल जाए उसके
हर शबरी को उसके राम मिले।
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