रविवार, 24 सितंबर 2017

!! मैंने अब नवरात्रि में बेटी के पैरों को धोना छोड़ दिया है !!

मैंने अब नवरात्रि में बेटी के
पैरों को धोना छोड़ दिया है
हाँ, कुछ बेड़ियों को उसके
नन्हें पैरों से खोल दिया है।

सीमित नहीं संसार है तेरा
जितनी है जान पंख पसार ले
ये मुक्त पवन, उन्मुक्त गगन
जी ले, जीवन में उतार ले।

तू अबला नहीं, तू जननी है
जन सकती है राणा औ कुँवर
तू आश्रिता नही, तू पालिनी है
देती जग को शिवा पालकर।

तू सीता है सावित्री है,ठीक है
पर तू मुंडमाल भी पहना कर
राम की प्रतीक्षा न कर हाथ धर
रावण पर काली बन प्रहार कर।

संस्कृति के नाम पे न सहना
अत्याचार पर भी चुप रहना
मौन हो गलत का साथ देना
संस्कार नहीं ये है दुर्बल होना।

दुर्बल को कब सम्मान मिला
न मान मिला,न ध्यान मिला
जिसने भी चाहा कुचल दिया
पीड़ा के सिवा उसे क्या मिला।

इसीलिए कलछी, कलम
के संग-संग
खप्पड भी धारण करना
इंद्र भी बच जाए,
गौतम भी न पछताए
ऐसी अहिल्या न बनना ।

क्योंकि कलियुग में राम
पता नही कब तक आएँगे
आज के ये इंद्र, ये गौतम
तेरी शिला भी नोंच खाएँगे।

इन नौ दिनों में ही नहीं
जीवन भर दुर्गा का रूप रहो
प्रेम करो, प्रेम बाँटों पर
गलत पे कभी न चुप रहो।

जो सबके हित में वही संस्कार
जो प्रेम बढ़ाए वही संस्कृति है
सारे धर्मों में सबसे ऊपर सदा
इंसान की इंसान से प्रीति है।

तेरे सिर से अपनी पगड़ी का
परम्परा का कुल खानदान का
सब बोझ उतारे देती हूँ
इस नवरात्रि कन्या पूजन में
तुझे मैं तेरा स्वतंत्र जीवन
आज उपहार में देती हूँ।



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