बुधवार, 25 जुलाई 2018

!! ठाठ बाट की सवारी होती थी बैलगाड़ी !!


बचपन की यादें यूँ ही इतनी खुबसूरत और तरोताज़ा करनेवाली होती है उसपे अगर कुछ यादें अब पुराना चलन बन चुकी हो  तो वो मन की धरोहर हो जाती हैं। ऐसी ही यादों के गुलदस्ते की एक कली है बचपन में की गयी बैलगाड़ी की शाही सवारी।वैसे कोई बहुत पुराने ज़माने की यादें नहीं है ये। इसी युग इसी सदी की यादें है बस कुछ दशक पहले की।टेलीविजन इंटरनेट से इतर पूरबइया में झूमते, सावन में नाचते गाँव की याद।

तब शायद गाँव में किसी के पास गाड़ी नहीं थी।गाड़ी मतलब चार चक्के वाली। तब तो ट्रैक्टर भी नहीं आया था गाँव में।खेती बैलों से ही होती थी। कभी-कभी गाँव में गाड़ियाँ दिख ज़रूर जाती थी किसी आनेवाले की। हाँ,दो चक्के वाली गाड़ी कुछ थी। साईकिल तो लगभग हर खाते-पीते घर में थी। गाँव की बुज़ुर्ग भी क्या शानदार साईकल चलाते थे। मेरे दादाजी भी। पर साईकिल पर बच्चे तो मेला देखने या कहीं भी जा सकते थे लेकिन घर की औरतों को कहीं जाना हो तो? तो उनके लिए सजती थी बैलगाड़ी की शाही सवारी। हाँ शाही ही होती थी।

हमारी बैलगाड़ी में बड़े-बड़े चक्के थे इससे गाड़ी ऊँची थी और हमारे बैल भी लम्बे-चौड़े खाते-पीते घर के थे। जब बैलों को गाड़ी में जोता जाता तो अचानक से लगता था कि सारी बैठे लोग पीछे लुढ़क रहे हैं। वैसे बच्चे तो बैल लगने से पहले ही गाड़ी में बैठ जाते थे लेकिन बड़ों को बैल लगने के बाद बैठने को कहा जाता। क्योंकि बैल को लगाने के लिए जुआ उठाना पड़ता था। जुआ मतलब बैलगाड़ी का स्टेयरिंग जिसे बैल के कंधों पे रखा जाता है। तो अगर ज़्यादा भार हो जाए तो जुआ उठाने में मुश्किल होती। बैल जोतने के बाद चढ़ने में भी समस्या। पीछे से चढ़े तो गाड़ी इतनी हिले की डर लगे।कभी-कभी तो बैल अगर दो क़दम बढ़ जाए तो गिरने का डर।मोटा आदमी हो तो गाड़ी ही उलटा दे। आगे से चढ़े तो बैल की दुलत्ती का डर।वैसे बैलगाड़ी हाँकनेवाले इसमें मदद करते।रस्सी को कस कर खींचे रहते कि बैल आगे बढ़े न और पीछे से आदमी चढ़ पाए।अगर आगे से चढ़ना होता तो वो उतरकर नीचे खड़े हो जाते बैल की पूँछ के पास।

बैलगाड़ी में बैठने में भी कुछ ख़ास ख़्याल रखा जाता। मोटे लोगों को आगे की तरफ़ बिठाते,पतले लोगों को,बच्चों को थोड़ा पीछे क्योंकि मोटे लोग आगे बैठ जाए तो गाड़ी ही उलाड़ हो जाए। उलाड़ मतलब आगे से जुआ ऊपर उठ जाए और पिछला हिस्सा ज़मीन पे और साथ में गाड़ी पे बैठे सारे लोग भी ज़मीन पे।

बैलगाड़ी सुनने में सामान्य सवारी भले लगे लेकिन उसका ठाठ बात था राजसी। वैसे बैलगाड़ी तो एक ही थी लेकिन जब उसमें अनाज,सब्ज़ी,ईंधन ढोया जाए तो सीधी-सादी बैलगाड़ी ही होती लेकिन जब उसमें कोई दुल्हन बैठी हो,बहु-बेटी बैठी हो तो वही बैलगाड़ी शाही बन जाती। गाड़ी पे पहले गद्दा बिछाया जाता ताकि बाँस के फट्टे चुभे नहीं। उसके ऊपर साफ़-सुथरी चादर बिछायी जाती। तकिया,पतला चद्दर साथ में रखा जाता।उसके ऊपर होता थ ओहार। ओहार मतलब ऊपर भी चादर ताना जाता था ताकि नयी बहु आराम से सफ़र कर सके।पर्दा का पर्दा और गर्मी,सर्दी से बचाव भी।सफ़र अगर रात के समय का होता तो ओहार की ज़रूरत नहीं होती थी।

शाही बैलगाड़ी की सवारी कई मौक़ों पे निकलती थी। बस स्टैंड जाना हो बस पकड़ने तो घर की औरतें और बच्चे बैलगाड़ी से जाते और पुरुष पैदल या साईकिल से।गाँव की कच्ची सड़क पे हिचकोले खाती जब ये सवारी निकलती तो ओहार के पीछे कहीं कोई दुल्हन हो तो उसको देखने की आस में बच्चे काफ़ी दूर तक गाड़ी का पीछा करते। कभी-कभी पीछे से लटकने की कोशिश में करते तो गाड़ी हाँकनेवाला उन्हें भगाता। गाड़ी के भीतर बैठे बच्चे जब भीतर से ताक-झाँक करते तो उनकी माएँ उन्हें पकड़कर बिठाती। रास्ते में मिलनेवाले हर किसी को पता होता कि किसके घर की गाड़ी है,भीतर कौन है, कहाँ जा रहा है क्योंकि ये गाड़ी गाँव की सड़क पे चल रही होती। पता होने पर भी कोई पूछ लेता कि दुल्हिन नहिरा जा रही है क्या? नहिरा मतलब मायका।

गाँव की अपनी सड़क से निकल कर जब बैलगाड़ी मेन रोड पर आती तो गाड़ीवान को बड़ा सतर्क रहना पड़ता कि कहीं बैल बिदक न जाए। अब बच्चे ओहार से बाहर मुँह निकाल बस देखने लगते। देखते-देखते चिल्ला पड़ते कि सामने से आ रही बस उनके ऊपर न चढ़ जाए और झट से माँ के आँचल में मुँह छुपा लेते। जब तक माँ तसल्ली न दिला देती कि बस चली गयी तब तक आँचल से बाहर नहीं निकलते।

कभी-कभी बैलगाड़ी की ये शाही सवारी रात को निकलती।कभी गाँव से थोड़े दूर बने हनुमान मंदिर जाने के लिए तो कभी कार्तिक मेले के लिए। कभी-कभी नयी दुल्हन पहली बार अपने आँगन से पड़ोस के आँगन बैलगाड़ी में ही जाती। मेरी अम्मा बताती है कि शादी के बाद जब वो पहली बार छोटे दादाजी के यहाँ गयी तो दादाजी ने उनके लिए बैलगाड़ी भेजी थी। जबकि दोनों घरों का फ़ासला पैदल दो मिनट भी नहीं है। पर यहाँ ज़रूरत की बात नहीं शौक़,सम्मान और प्यार की बात थी।

जब कभी रात में बैलगाड़ी की सवारी निकलती तो उसमें ओहार नहीं होता था। गाड़ीवान अपने पास टॉर्च रखता या लालटेन लटकाए रहता। रात के समय गाड़ीवान के साथ कोई और पुरुष भी रहता जो उसके साथ उसके पास ही बैठता। घर का ही कोई काम करनेवाला। वैसे किसी इंसान,लूटपाट या किसी छेड़छाड़ के डर से नहीं। बुलकनी के डर से। बुलकनी एक सांढ का नाम था जो रात में निकलता। किसी का फ़सल बर्बाद कर दे,किसी की भैंस को मारे,किसी के बैल,गाय को मारे, कहीं चारा खा जाए। कभी-कभी तो बैलगाड़ी में जुते बैल से भी उलझ पड़े। शायद उसके इसी सब गुण के कारण उनसे बुलकनी नाम मिला था। इसीलिए दो पुरुष होते थे ताकि अगर बुलकनी आ भी जाए तो एक गाड़ी संभाले और दूसरा उसे भगाए। गाड़ीवान के पास एक डंडा तो होता ही था जिससे वो बैल को मारता नहीं हड़काता था। साथ में एक लाठी भी होती थी बुलकनी के लिए।

रात में बैलगाड़ी की सवारी सच में शाही होती थी। क्या ठाठ होता था!  मंदिर की सवारी  अक्सर गर्मी में ही निकलती थी। गर्मी की रात में गाँव की ठंडी पुरबाई। हवा पेड़ों के पत्तों के संग मिलकर युगल संगीत निकालती।कहीं झींगुर का गीत कहीं मेढकों का सुरीला स्वर। हाँ, मेढकों को अपने टर्र-टर्र के लिए तुलसीदास जी से वेदपाठ का सम्मान मिल चुका है मानस में।घर के लोगों को खिला-पिलाकर ही औरतें निकलती थी तब तक गाँव लगभग शांति में डूब चुका होता। सुंदर,सुखद-सी शांति वैसे भी गाँवों में सन्नाटा नहीं होता यह शहरों का स्वभाव है। मोड़,चौराहा,घुमाव वाले रस्ते से निकलती बैलगाड़ी, बैलों के गले की घंटी की मधुर ध्वनि,बीच-बीच में गाड़ीवान की ठामे-ठाम की आवाज़, बच्चों की खिलखिलाहट,औरतों के चूड़ियों व बातों की खनक, ऊपर खुला आसमान। कभी पूरा चाँद कभी आधा-अधूरा पर हर हाल में खिला हुआ। मुस्कुराता,बतियाता। कभी टिमटिमाते तारे कभी घुप्प अँधेरा पर दोनों ही मोहक कोई डरावना नहीं। चाँद तो साथ-साथ मंदिर जाता और आते समय साथ-साथ आँगन तक आता। आने के बाद भी जाता नहीं भोर तक आँगन में ही ठहर जाता।

कभी-कभी आते-आते बूँदाबाँदी शुरू हो जाती तो शाही सवारी स्वर्गिक सवारी बन जाती। कभी गाड़ी में छाता होता तो कभी नहीं। पर बरसात की संभावना होती तो गाड़ी में प्लास्टिक का ओहार लगा होता फिर तो बिन भीगे भीगने का आनंद मिल जाता। गर्मी की उस बारिश के चंद छीटों से मन इस तरह भींगता कि उसे ताउम्र के लिए तरल कर जाता।


बैलगाड़ी की सवारी की ऐसी कितनी ही कहानियाँ, यादें तो है पर सिर्फ़ यादें ही।पुराना सब कुछ देखते-देखते ग़ायब-सा हो गया। ट्रैक्टर ने हमारे दो बैलों को कब निगल लिया मुझे बिल्कुल भी याद नहीं।धुँधला-सा भी नहीं। चार चक्के के बंद शीशेवाली गाड़ी ने भी ऐसे ही हमसे पत्तों का संगीत, मेघ के छींटे, झींगुर का गीत कब चुपके से बिना बताए छीन लिया पता ही नहीं चला।

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