मंगलवार, 31 जुलाई 2018

!! सावन महीना नहीं महोत्सव होता !!


हरियाली,ख़ुशहाली,रिमझिम फुहार के साथ सावन का आना गाँव की हवा के संग-संग गाँववालों में भी एक तरोताज़गी भर देता। सावन का आना सबके लिए ही सुखद होता। धूप से झुलसती धरती के लिए, सूरज के ताप से लड़ते पेड़ों के लिए, बुआइ के लिए बारिश का इंतज़ार करते किसानों के लिए, गर्मी से परेशान पशु,पक्षी इंसानों के लिए। आसमानी लड़ियों वाले सावन की प्रतीक्षा वैसे तो हर कोई करता है पर गाँव में सावन का आना कुछ ज़्यादा निखरकर दिखता।खेल-खलिहान, आँगन-द्वार, मन-प्राण सब तर हो जाता सावन की फुहारों से।सावन का पूरा महीना ही त्योहार होता था।हर ओर हरियाली,हर ओर ख़ुशहाली। हरे खेत, हरे पेड़, हरी साड़ियाँ, हरी चूड़ियाँ,मेहंदी,लाली,झूला,गीत,संगीत,काले बादल,झूमते लोग,रिमझिम बारिश,भींगते लोग।

प्रकृति पे निर्भरता, उससे अपनापन, उसके संग उसके रंग में रंगकर जीना शायद यही गाँव की मस्ती और अल्हड़पन का रहस्य था। आजकल धीरे-धीरे गाँव प्रकृति से दूरी बनाते जा रहा है शायद इसलिए शहर होता जा रहा है।

कभी सुबह से धूप होती अचानक दोपहर में बारिश शुरू। फिर तो ऐसी अफरातफरी मचती। कोई आँगन से सूखे कपड़े उतार रहा होता, कोई अचार उठा रहा तो कोई सूखने के लिए रखे अनाज समेट रहा, कोई जलवान उठा रहा तो कोई आँगन का माटीवाला चूल्हा ढक रहा। बारिश की बूँदें सारे परिवार को एकसाथ आँगन में ले आती। जो समेटने वाला सामान होता उसे समेट लेते नहीं तो उसे प्लास्टिक से ढक देते। ढकने समेटने के बीच बारिश की बूँदें मोटी और तेज़ हो जाती।कुछ थोड़े भींगते तो कोई पूरे।बड़े भागकर आँगन से ओसारे पर चले जाते पर बच्चे तो आँगन में अपना-अपना कोना चुन नहाने लगते। उन्हें बारिश में नहाने से रोका भी नहीं जाता आज। कहते थे कि पहली बारिश में नहाने से जीवन भर कभी खुजली आदि चमड़े की कोई समस्या नही होती। यह मत वैज्ञानिक था कि नहीं ये तो नहीं पता पर उस बारिश में भींगकर बचपन इतना तर तो ज़रूर हो जाता कि जीवन के आनेवाले पलों के रूखापन से लड़ने के लिए एक कवच मिल जाता उसे।

जिन्हें बाहर जाना ज़रूरी होता वे तो जाते ही। खेतों में पानी का बहाव, मेड़ की मज़बूती, आम का बग़ीचा, गाय-भैंस बहुत कुछ होता जीवन से जुड़ा जिसकी हिफ़ाज़त और देखरेख के लिए घर से निकलना पड़ता। ऐसे में बारिश से बचने के लिए भी कई साधन थे। पहला तो छाता। बड़े बेंत वाला बड़ा-सा काला छाता जो बारिश में पानी से बचाता और बारिश बंद होने पर बेंत बनकर फिसलन से। बारिश से बचने का एक तरीक़ा प्लास्टिक के जो बोरे होते थे खाद, अनाज, सब्ज़ी वाले।उसको मोड़कर सिर से पैर तक पाग की तरह लटकाकर पहनते। काम करने जो आती थी वे तो कभी-कभी सिर पे डगरा ही ओढ़े रहती।

बाहर सावन की पहली बारिश में भींगी मिट्टी की सोंधी सुगंध और इधर रसोई के भीतर से आती पकौड़ों की ख़ुशबू। बारिश हो और पकौड़ा न बने ऐसा हो नहीं सकता। सावन आते ही रसोई से तरह-तरह के पकवानों की ख़ुशबू आने लगती। गर्मी की बहाली में न ज़्यादा खाना पचता था न मन ही होता अब जब सावन आ गया था तो कभी दाल वाली पूरी, अभी कचौड़ी, कभी खीर मतलब हरदिन उत्सव।

जब लगातार तीन-चार दिन बारिश होती सारा परिवार सिमट जाता साथ में। सबसे मज़े की बात ये कि बिना टीवी, मोबाइल,इंटरनेट के भी कितनी बढ़िया बीतती थी ये बारिश की छुट्टी। बच्चे कभी काग़ज की नाव बना आँगन में चलाते, कभी लूडो खेलते,कभी अंताक्षरी, कभी राजा,मंत्री,चोर,सिपाही,कभी दालान में झिझिर कोना,कभी दादी से गोनु झा की कहानियाँ सुनते,कभी अपने बचपन की मतलब खेलों की कोई कमी नहीं थी। बच्चों के जीवन में बोरियत नाम की बीमारी का तब तक न चलन था न दख़ल। घर के पुरुषों का अखाड़ा दालान और बाहर का ओसारा होता। घर की महिलाएँ कभी रसोई में तो कभी ओसारे पे,कभी दादी के कमरे में तो कभी किसी और कमरे में।

सावन का महीना उत्सव का महीना है। प्रकृति अपने आप में एक उत्सव का वातावरण तो बना ही देती है उसपे हमारे त्योहार। सावन के संग बारिश जैसे जुड़ा है वैसे ही सावन के साथ अभिन्न रूप से जुड़े हैं हमारे भोले भंडारी। सावन महीना शिव जी को ही समर्पित होता। सावन आने से पहले ही लोग तैयारी कर चुके होते। किसी को सावन में काशी विश्वनाथ के दर्शन के लिए जाना होता तो किसी को बाबा की नगरी देवघर। कोई ग़रीबस्थान तो कोई भैरोस्थान।कोई दूर तो कोई पास सबकी तैयारियाँ होती बाबा से संबंध घनिष्ठ बनाने की।इस महीने में काँवरियों की भी धूम होती।तपस्या,प्रेम,समर्पण का अद्भूत संगम है काँवर यात्रा।

सावन की सोमवारी, हरियाली तीज, नाग पंचमी, रक्षाबंधन सब अपने आप में एक पूर्ण उत्सव और सारे एक महीने में समा कर जीवन को जीवन रस से लबालब कर देते। पेड़ों पे झूला, होठों पे गीत नचारी,किसी हाथ में मेंहंदी किसी हाथ में राखी हर कोई प्रसन्न हर कोई तृप्त।सावन महीना नहीं महोत्सव होता।

0 टिपण्णी -आपके विचार !: