बुधवार, 3 जून 2020

गर्भवती हथिनी को मार डाला। हाँ मारा ही न।

फिर कहते हैं हम इंसान कि प्रकृति इतनी क्रूर क्यूँ हो रही है? हे बेज़ुबान की हाय दर्द पीड़ा जो कह ले उस तक पहुँचती है। माँ है प्रकृति। उसके लिए सब बच्चे बराबर। बिना भेदभाव। उससे कुछ नहीं छुपा। सजा देती है। पर कभी कभी एक के कर्मों की सजा में कई झुलस जाते हैं। शायद इसलिए भी कि बोलने के समय चुप रह गए थे। हम अनदेखा कर देते हैं पर प्रकृति नहीं करती। हमारी तरह वो अधीर नहीं। धैर्य धरती है, समय देती है फिर प्रतिकार करती है। पर कोई भी अपने कर्मों का हिसाब लिए बिना छूट नहीं सकता।

एक गर्भवती हथिनी। मूक भाषाविहीन माँ अजन्मे बच्चे को धारण किए सहज ही स्नेह की पात्र होती है। गर्भावस्था तो मन को वैसे भी कोमल कर देता, माँ के प्रति संवेदनशील फ़िक्रमंद कर देता है। पर वो कैसा हृदय जिसमें प्रेम तो दूर इतनी क्रूरता भरी कि उस गर्भवती हथिनी को मार डाला। हाँ मारा ही न। अब पोषण के लिए तो पटाखे खिलाए नहीं होंगे। क्रूरता भी छल से नासपाती में मिलाकर।

सोचकर देखें। कितने मन से ललचकर खाया होगा उस माँ ने नासपाती। कहते हैं माँ के मन से भावनाओं से अजन्मे बच्चे का भी तार जुड़ा होता है। वो भी शायद ललचाया हो चहका हो। जो भी हो। छली गयी वो माँ। फट गया पटाखा। जबड़े टूट गए। कराह कराह कर अजन्मे बच्चे समेत इंसान की क्रूरता की बली चढ़ गयी वो।


फिर क्यूँ न प्रकृति दंडित करे हमें। हम ऐसे इंसान बना रहे हैं। हाँ सोच संवेदनहीनता में तो परवरिश शिक्षा का भी बहुत बड़ा योगदान होता है न। हथिनी चुप रह गयी,सब सह गयी पर न प्रकृति अनदेखा करेगी न ही प्रकृति के भी ऊपर उसका नियंत्रक।

बाक़ी हम क्या करें? डरे और क्या? ऐसी सोच से।

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