जब हो गयी पूरी लोहड़ी
और पोंगल की बधाई।
याद बहुत आ रहा है अब
गाँववाला चूड़ा-दही-लाई।।
चूड़ा भी हैं तरह-तरह के
दही तो माँ ने ख़ुद जमाई।
साथ में वो तीन तारों की
चाशनी से बनी हुई लाई।।
चूड़ा-दही-लाई के साथ होती
आलू-गोभी,कोम्हरे की सब्ज़ी।
साथ में गुड़ हो या होगी चीनी
ये सबकी अपनी-अपनी मर्ज़ी।।
किसी को अचार, नमक-मिर्च
तो किसी को तिलकुट चाहिए।
तो कोई कहे कि चूड़ा में थोड़ा
गरम दूध और मलाई मिलायिये।।
ये तो होता सुबह का नाश्ता
दिन तो लाई पर ही बीतता।
किसी को चूड़ा, किसी को मूढ़ी
किसी को तिल का अच्छा लगता।।
दोपहर में बैठते आग के पास
अक्सर ही सूरज नहीं निकलता।
नानी घर से आए संदेशों का
पिटारा वही पर था खुलता।।
मूँगफली की चक्की, गजक
और कितने ही छोटे-बड़े लड्डू।
इतने स्वाद से भरे वे होते कि
दिल करता आज ही ख़त्म कर दूँ।।
फिर होती रात की तैयारी
आती अब खिचड़ी की बारी।
खेत से टूटकर गोभी आता
बच्चे छिलते बैठकर मटर सारी।।
माँ कहती थी खिचड़ी के
होते हैं जिगरी चार यार।
पूरा होता है खाना तब जब
साथ हो दही,पापड़,घी,अचार।।
गोभी-मटर से सजकर खिचड़ी
सबकी थाली में उतरती थी।
साथ में चार साथी और चोखा
माँ गरमगरम घी उँडेलती थी।।
साथ में खाना और बतियाना
ना ना कहते चट करते जाना।
सच में था वो गुज़रा ज़माना
लगता मुश्किल फिर से आना।।
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