शनिवार, 14 जनवरी 2017

!! उत्तरायण होते सूर्य के संग , दही-चूड़ा की बहुत बधाई !!




सुबह-सुबह माँ जगती
फिर जगता था सारा घर।
सबसे पहले दही देखती
जल्दी से चौके घर में जाकर।।

दही का सही से जम जाना
जाड़े में मुश्किल होता था।
दही की भी क्या ऐश थी
कई-कई कम्बल ओढ़ता था।।

उसदिन सब सुबह ही नहाते
जाकर दादी से गुड़-तिल खाते।
फिर उनका पैर छूकर बुढापे में
देंगे साथ ये विश्वास दिलाते।।

दादी पोतियों को यह गुड़ -तिल
अपने हाथ से नही दिया करती थी।
तुम तो होगी अपने ससुराल फिर
कैसे आओगी बुढ़ापे में, कहती थी।।

हर मंदिर पर लाई,चूड़ा,तिल
और साथ में गुड़ व दही जाता।
जो बच्चा यह काम करता वो
उसदिन दादी का प्यारा होता।।

घर के सारे लोग साथ में खाते
दादी,माँ,भाभी,चाची को छोड़कर।
सबको खिलाकर फिर ये सब खाती
ये होती इनकी मर्ज़ी न कि थोपकर।।

कुछ मेहमान भी आते घर पर
बुआओं के घर संदेश जाता।
नानी घर से भी कोई आदमी
कपड़े और लाई-चूड़ा लाता।।

सुबह से शाम तक उत्सव रहता
हर कोई दिखता हँसता-खेलता।
यही ख़ूबी है इन उत्सवों की कि
जीवन में ख़ुशी बन घुल जाता।।

उत्तरायण होते सूर्य के संग
दही-चूड़ा की बहुत बधाई।
जिसे कोई कहता संक्रान्ति तो
कोई कहे कि खिचड़ी आयी।।

गुड़, तिल, गजक की ख़ुशबू
हर रिश्ते को महकाए।
रूठे, छूटे रिश्ते-नाते सारे
पक्की चाशनी से जुड़ जाए।।

पतंग के संग गिले-शिकवे
दूर गगन में कहीं उड़ जाए।
प्रेम के माँजे से रिश्तों की डोर
हम सब मिल मज़बूत बनाए।।


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