मंगलवार, 24 जनवरी 2017

!! छोटी-छोटी काँच की चूड़ियाँ दर्पण की तरह यादों में बसी है !!


एक टोकड़े में भरकर बाजार
जब भी चूड़ीवाली आती थी
माँ-दादी क्या लेंगी चूड़ियाँ
हम बच्चों से पूछवाती थी।

लेना हो किसी को या न हो
बाजार तो यहाँ छनता था
इन छोटे-छोटे बाजारों से ही
नित गाँव हमारा सजता था।

धीरे-धीरे लग जाता जमघट
बीच में बैठी होती चूड़ीवाली
संग-संग मिल देखे सब चूड़ियाँ
मालकिन हो या कामवाली।

सतरंगी चूड़ियों से भरा टोकड़ा
ऐसी इंद्रधनुषी छटा बिखेरता
दूर बैठी भाभी-चाचियों को भी
अपनी तरफ़ खींच ही लेता।

चूड़ीवाली पहले सस्ती चूड़ियाँ
बाद में  महँगीवाली दिखाती
जितना कम करवाएँगे ये दाम
उतना पहले से जोड़कर बताती।

बिना डिग्री के ऐसा मैनेजमेंट
गाँवों में ही मिल सकता है
शहरों में तो डिग्री वालों को
हरदिन लूटते-पिटते देखा है।

कोई एक होती थी टोले में जो
दाम लगाने की उस्ताद होती
जब भी कोई ख़रीददारी करता
बड़े सम्मान से वो बुलायी जाती।

नए डिज़ाइन की चूड़ी दिखाओ
दाम जरा तुम ठीक से लगाओ
एक काम करो ये लाल चूड़ी
पहले दुल्हिन को तो पहनाओ।

पहनाने का भी गजब हुनर था
कलाइयों को आरी-तिरछी दबाती
छोटी लगनेवाली चूड़ियाँ भी
पता नही कैसे सही से आ जाती।

नयी बहुएँ पहनती कामदार चूड़ियाँ
माँ-चाची के होती सादी संगीन
दादी पहनती ऐसी चूड़ियाँ जो
चल जाती हर साड़ी पर हर दिन।

कामवाली की होती मोटी चूड़ियाँ
ताकि काम करने में जल्दी टूटे नही
आख़िरी में आती हिसाब की बारी
जो होती किसी जंग से कम नहीं।

मोलभाव के हो हल्ले के भीतर
दादी की नज़र जब पास में जाती
छोटी-छोटी पोतियों को अपनी
चूड़ियों की ओर निहारते पाती।

पहले दादी तसल्ली कर लेती
कि इसे उतार कर फेंकोगे नही
जब हम हामी भर देतीं थी तब
बिठा लेती अपने पास में वही।

हमारी वाली चूड़ियाँ काग़ज़ नही
प्लास्टिक के डब्बों से निकलती
या तो लाल नही तो फिर हरी
दो रंगों की हमारी चूड़ियाँ होती।

हमारी चूड़ियों के लिए चूड़ीवाली
पैसे नही चावल लिया करती थी
पहनाकर नन्ही हाथों में चूड़ियाँ
फिर उन्हें चूम लिया करती थी।

चूड़ियों को खनक़ाते हम सब
घर में सबके पैर छूकर आते
सबसे पहले दादाजी को फिर
जाकर पापा को भी दिखाते।

हमें खनकते-चहकते देखकर
दादी निहाल हुए जाती थी
ऐसे ही ख़ुश रहो तुम सब सदा
कहते ही आँखें भर आती थी।

गुम गयी अतीत में कहीं अब
चूड़ियों की वो खनखनाहट।
कान लगाकर सुना फिर भी
आयी नही कोई भी आहट।।

छोटी-छोटी काँच की चूड़ियाँ
दर्पण की तरह यादों में हैं बसी
कभी दिख जाता बचपन उसमें
कभी दिख जाती गाँव की छवि।

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