सोमवार, 13 मार्च 2017

!! वो होली !!


जिसपे कोई रंग टिके न
ऐसी सारी पहनी माँ ने
पर उनकी चालाकी को
पल में पकड़ लिया बुआ ने।

हल्के रंग की सारी पहनो
नहीं तो मैं न होली खेलूँ
झट से माँ बोली कि आप
बताओ कौन-सी पहन लूँ।

इसी रूठने-मनाने के बीच
दादी ने सबको ही चेताया
जब तक होगा रसोई में काम
ख़बरदार जो कोई रंग लाया।

बनने लगे फिर पुए, पकवान
पूरी, पुलाव, कटहल, खीर
पर रंगों के बिना आँगन में
बच्चे अब हो रहे थे अधीर।

किसी ने दादी की नज़र बचा
दादी पर ही रंग डाल दिया
उन सफेद बालों पे लाल रंग
मानो आकाश किसी ने रंग दिया।

दादी थी अनजान पर दादाजी
उन्होंने ने ही तो उकसाया था
पोते-पोतियों के संग मिलकर
उन्होंने ही तो रंग डलवाया था।

दादाजी के संग दादी हमारी
बिल्कुल फागुन जैसी लगती थी
जीवन के चटख रंगों से भरी
ख़ुशियों की इंद्रधनुष दिखती थी।

दादी को भनक लगे इससे
पहले ही सब-के-सब भाग गए
अब भी मन भरा नही तो आकर
माँ-बुआ पर भी ग़ुब्बारे दाग़ गए।

जब तक बाहर से न कोई आए
सब जमकर घर में ही ख़ूब खेले
बाहर से कोई आए तब घर के
सब बच्चे एक टोली में हो ले।

ऐसे ही चलता जब तक होली
पूरी हुरदंग में नहीं बदल जाए
कोई रूठे तो कोई मनाए तो
कुछ ख़ुद को रंगों से बचाए।

बीच-बीच में कोई पुआ ले आए
कोई रंगे हाथों से रंगीन खीर खाए
किसी को भाए केले का कोफ़्ता
कोई दही-भल्ले में डुबकी लगाए।

थक-हारकर शाम को नहा धो
आधा रंग छुड़ाए ही सो जाते थे
होली के रंग तो हफ़्ते दो हफ़्ते
बाद धीरे-धीरे ही हट पाते थे।

अपनी माँ से, दादी से बहन से
बच्चे जी भरके होली थे खेलते
ग़ैरों पे रंग क्या नज़र भी न फेंके
रिश्ते में है कोई तभी उसे देखते।

शालीन होती थी पर बेरंग नही
रंग ऐसा पक्का कि अब भी चढ़ा है
गीले रंगों से भीगा कच्चा मन कहीं
आज भी गाँव के आँगन में पड़ा है।

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