गुरुवार, 11 मई 2017

!! तल्खियों से, कड़वाहटों से कहीं कोई खिड़की बंद तो नहीं !!

न बारिश
न सूरज
न तपन
न सिहरन

सिर्फ़ काले बादल
बेरंग आकाश
जैसे ज़िंदगी से ऊबा आदमी
ले रहा बस भर साँस

अजीब-सा मौसम
गमगीन-सा मौसम
आँखों से होठों तक आए
नमकीन-सा मौसम

जैसे अभी-अभी किसी को
कोई अपना छोड़ के गया
जैसे अभी-अभी कोई  शोर
सुंदर सपना तोड़ के गया

छूटन का, बिछड़न का
तन्हा-सा अहसास
पेड़, पत्ते, बादल
सब लग रहे थे उदास

ये मौसम दिख रहा था
खिड़की से बाहर
मैं बैठी थी बंद शीशे के
भीतर कहीं अंदर

यूँ ही उठकर मैंने
ज्योंहि खिड़की खोल दी
शीतल-सी एक बयार आयी
जो अंदर तक कुछ घोल गयी

सारी टूटन, घुटन सब
बह गये शीतलता के संग
बारिश व सूरज से सूनी साँझ
दिखाने लगी कितने ही रंग


मौसम मनभावन हो गया
मन मेरा  सावन हो गया
अंदर तक पावन हो गया
सबकुछ सुहावन हो गया


ऐसे ही अक्सर हम ख़ुद को
बंद खिड़कियों के भीतर पाते हैं
घूटते रहते हैं, टूटते रहते हैं
कभी संभलते कभी बिखर जाते हैं

शीशे की दीवार-सी कुंठा
ज़िंदगी औ हमारे बीच आ जाती है
बरसती रहती हैं ख़ुशियाँ पर
ज़िंदगी सूखी-सूखी रह जाती है

बारिश, सूरज, बादल
सबकी अपनी-अपनी भूमिका है
ये सब जीवन के चित्रपट की
अलग-अलग तूलिका है

ज़िंदगी कभी ऐसी नही होती
कि सिर्फ़ उसमें थकावट हो
हर पल एक नयापन लाता
ठहर के सुने पल की आहट वो

तल्खियों से, कड़वाहटों से
कहीं कोई खिड़की बंद तो नहीं
हवाओं की तरह खड़ी हैं ख़ुशियाँ
उसके आने का रास्ता तंग तो नहीं

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