बुधवार, 26 अगस्त 2020

गाँव घुमा लायी वो निम्बू की महक



कभी-कभी एक छोटी सी चीज़ भी आपको ठहरा देती है भागते वक्त के साथ दौड़ते आपको थाम लेती है। ओ दृश्य ओ आवाज़ इतनी गहराई तक छूती है कि पाँव तो वर्तमान के संग चल रहा होता है पर मन तो कहाँ कहाँ भूली बिसरी यादों की गलियों में घूम रहा होता है। है न । होता है अक्सर ऐसा। सबके साथ ही।

आज ही सुबह यूँ ही टहलते अचानक से एक महक सी आयी। महक बहुत हाई जानी पहचानी सी। बहुत दिनों बाद ऐसी महक। मन बेचैन कि यहाँ कहाँ से ऐसी महक आयी? आँखें भी सजगता से मन का साथ दे रही है। यूँ कहीं पूरा दिल दिमाग़ सब मिल उस महक का स्रोत ढूँढने में लग गए। लेकिन आसपास दिखा न कुछ।

महक थी ताजे निम्बू की। हमारे गाँव में घर के पिछवाड़े अब भी होगा शायद वो निम्बू का पेड। जब भी उस पेड के पास से गुज़रो वो महक मन को धो देती थी। सारी निराशा की चिकनाई बिना बताए पिघला देती थी। जब कभी उस निम्बू को तोड़ो तो तोड़ने भर से महक हाथों पर चढ़ जाती।


वही पेड के कागजी निम्बू की ताजी महक पता नहीं कहाँ से हवा लेकर आयी थी आज सुबह सुबह। बहुत ढूँढने पर भी मिला न कहीं वैसा कोई पेड। झील का किनारा। घने पेड पौधे हो सकता है कहीं हो भीतर छुपा कोई निम्बू का पेड।


पर वो महक बेचैन कर गयी। घुमा लायी गाँव। गाँव जो बहुत पहले छूट गया। बचपन का गाँव लड़कपन का गाँव बेटियों का पराया गाँव । पर मेरा बहुत अपना है आज भी वो। मन में बसता है। हँसता है खिलखिलाता है कभी हँसाता कभी रुलाता है। हाँ मेरा गाँव उसकी यादें वहाँ के लोग मेरे भीतर बड़े गहरे बसे हैं। उनसे मिलने के लिए कभी कोई पूरबैया या निम्बू की महक ही काफ़ी है।

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