शनिवार, 7 नवंबर 2020

माँ

कहते हैं न कि माँ बनने के बाद उसकी अहमियत समझ आती है। सच नहीं है ये। मुझे भी लगता था कि ऐसा ही है। अब मैं समझ पा रही हूँ कि माँ ने मेरे लिए क्या-क्या किया। कितने कष्ट उठाए। कैसी उनकी भावनाएँ रही होंगी। मैं सब समझ गयी।

 

माँ बनने के बाद लगने लगा था मुझे कि मैं माँ को अब समझने लगी।

 

 

लेकिन नहीं। माँ बनकर माँ समझ में आ जाए इतना सरल नहीं होता। माँ क्या है क्या उनकी अहमियत क्या उनकी जगह ये वाकई में माँ के जाने के बाद पता चलता है। जब वो न हो तब समझ आता है वो क्या मिला था ऊपरवाले से। जब तक वो जगह भरी रहती है तब तक ख़ालीपन का अहसास कहाँ से हो? इसमें कुछ ग़लत भी नहीं।

 

 

लेकिन सच में माँ होना माँ के न होने पर सबसे ज़्यादा समझ आता है। जब आपके सुख और दुःख दोनों अनछुए निकल जाते हैं। बिना किसी की नज़र पड़े बिना किसी की फिक्र दुआ के।

 

 

ज़िंदगी तो चलती ही रहती है लेकिन एक ख़ालीपन के साथ। कभी न भरनेवाला ख़ालीपन, हमेशा कचोटने वाला ख़ालीपन, रात को जगा देनेवाला ख़ालीपन, साँझ से भोर से आसमान से बारिश से चिढ़ा देनेवाला ख़ालीपन। ख़ालीपन से भी कहीं ज़्यादा। खोखला। एक खोखले हिस्से के साथ बिना किसी उम्मीद के जीने का नाम है माँ का न होना।

 

खुशनसीब है जिनके घर में माँ है। आपके घर में है तो ऊपरवाले का अहसान मानिए कि उसने अपना एक अक्स आपके आँगन में भेज रखा है। दुआ को प्रेम से संभाल के सम्मान से स्वीकार कीजिए क्योंकि ये दुआएँ अमर नहीं होती।

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