सोमवार, 30 नवंबर 2020

!! कार्तिक पूर्णिमा समा चकवा देव दिवाली !!



कार्तिक पूर्णिमा के अनेक आध्यात्मिक पक्ष हैं। कितनी कथाएँ मान्यताएँ जुड़ी हैं इससे। पर इससे जुड़े दो प्रसंग है जो कार्तिक पूर्णिमा को मेरे लिए ख़ास बनाते हैं। पहला मेरे बचपन की याद समा चकवा के जाने का दिन। दूसरा मेरी अम्मा का देव दीपावली के लिए उत्साह।

 

पहले से शुरू करते हैं। समा चकवा एक परंपरागत लोक संस्कृति का हिस्सा है हमारे यहाँ, बिहार में। छठ के कुछ दिन पहले से समा चकवा खेलना शुरू करती हैं घर कि बेटियाँ। हाँ बड़ी सुंदर सी संस्कृति है ये बेटियों की तरह ही सहज खनकती छनकती। मिट्टी का समा चकवा वृंदावन चुगला खरिच बहुत से अलग अलग प्रकार की मूर्तियाँ बनायी जाती हैं। समा को छोड़ सब घर पे बनाते हैं। समा बाज़ार से आता है। गाँव के बाज़ार से। गाँव की मिट्टी का बना।गीली मिट्टी से गढ़ा जाती हैं जब ये मूर्तियाँ तो साथ साथ बहुत कुछ गढ़ता है – संस्कृति, लोक, व्यवहार, विरासत प्रकृति से सामंजस्य बहुत कुछ जो दिखता तो नहीं प्रत्यक्ष लेकिन गहरा गढ़ता है। मन मस्तिष्क पर छप जाता है।

 

अपने अनुभव से बता रही हूँ। पिछले कई सालों से मैंने गाँव का दर्शन तक नहीं किया, समा चकवा खेले तो दशकों हो गए लेकिन अब भी हर कार्तिक में में अपने बचपन के गढ़े उस समा चकवा को मन से सजीव खेलती हूँ।

 

समा चकवा विशेष रूप से भाई बहन के प्रेम का रिश्तों का लोक त्योहार है। कार्तिक पूर्णिमा तक हर शाम घर की बेटियाँ लाल बांस की टोकरी हमारे यहाँ दौरी कहते हैं उसमें समा जो की बहन होती है उसे बीच में रखकर चकवा जो भाई है वो रहता है और भी बाक़ी सब गढ़ी मूर्तियाँ रहती हैं उस टोकरी में, उसे लेकर बैठ जाते हैं आँगन में। ठंढ ज़्यादा है तो बरामदे पर। फिर सजती है लोक गीतों की सुंदर महफ़िल। माँ बेटी बहू दादी सब शामिल होती है। भाई बहन के गीत बीच बीच में ठिठोली तंज सब समाहित रहता है। बच्चों का उत्साह, बहू के मायके की याद, दादी के अनुभव सब हरदिन ही इसको रौनक़ से भरते हैं। कभी बोरियत नहीं होती कि ठंड है अलसाने का मौसम है आज न खेले। न, पूरे दिन साँझ की प्रतीक्षा होती है कि समा खेलना है।

 

समा खेलना मतलब साँझ होते अधिकांशतया घर की बेटी समा की दौरी (टोकरी ) जो कि बांस की होती है और लाल हरे पीले रंग से रंगी होती है उसे लेकर किसी बरामदे पर रखती है। वहाँ बैठने का कुछ बिछाती है। फिर एक एक कर घर में सबको बुलाती है। सबसे पहले निमंत्रण स्वीकार करती है दादी। फिर एक एक कर सब आ जाते हैं। फिर गीत का सिलसिला चलता है। पाँच दस पंद्रह कितनी भी हो सकती है गीतों कि संख्या। ये पूर्णतया गानेवाले के समय और उस दिन के उसके मिज़ाज पर निर्भर होता है। गाने के बाद उस समा की दौरी में एक होता है वृंदावन जो कि नीचे मिट्टी का बना होता है और उसपर सींक लागी होती है और दूसरा प्राणी होता है चुगला वो भी मिट्टी का बना होता है और उसमें लगा होता है पटुआ। दोनों को जलाया जाता है थोड़ा थोड़ा। पर  दोनों के जलाने में बड़ा अंतर। वृंदावन जलता है तो उसको जल्दी से बुझाने के लिए, उसको बचाने के लिए। लेकिन चुगला को जलाया जाता है उसको सजा देने के लिए। सीधे शब्दों में कहे तो एक अच्छाई का प्रतीक तो दूसरा नकरात्मकता का।

 

ऐसे ही बहुत सी छोटी छोटी बातें क्रियाएँ होती है जिसे हम समा खेलना कहते हैं। उस समय धान का समय होता है। धान की बालियाँ पक चुकी होती हैं तो उसे समा को खाने के लिए देते हैं। बहुत कुछ होता है बाहर सामने और भीतर गहरे मन में। फिर उस समा की दौरी की वापस रख देते हैं अंदर ज़्यादातर गोसाईं घर में।

 

कार्तिक पूर्णिमा तक हर दिन बिना नागा उसी उत्साह प्रेम से समा खेला जाता है हर साँझ।

 

कार्तिक पूर्णिमा के दिन समा का विसर्जन होता है नज़दीक की किसी नदी में। समा बेटी है बहन है उसकी विदाई होती है। धूमधाम से पर भारी मन से। फिर आने का कह उसे जाने दिया जाता है। विसर्जन के लिए जाती है घर के बेटी और दादी या यूँ कहें घर के बच्चे व दादी और साथ में मदद के लिए और भी कई लोग। उसदिन लगता है जैसे सारा गाँव ही नदी की ओर जा रहा है, सारा गाँव ही गा रहा है। नदी पहुँच समा को विदाई और विदाई के बाद सुंदर सा कार्तिक मेला। शायद उस विदाई के वेग को संतुलित करने के लिए मेला का आयोजन आरम्भ हुआ होगा।

 

ये है मेरे लिए कार्तिक पूर्णिमा। समा के जाने की रात, बैलगाड़ी में बैठ दादी भाई बहनों संग नदी की ओर जाने की रात, खुले आसमान के नीचे निर्भय होकर लोक को गाने की रात, सैकड़ों समा खेलनेवालियों का ताँता उनके सिर पे दौरी उसमें जलता दीया।

कार्तिक की ठंड और समा चकवा के यादों की गर्माहट का सुंदर समागम है मेरे लिए ये पूर्णिमा।

 

दूसरी याद है कार्तिक पूर्णिमा की मेरे लिए विशेष वो है अम्मा कि देव दीपावली। उन्हें बड़ा उत्साह होता था कि इसबार देव दिवाली में बनारस जाएँगे, अयोध्या जाएँगे। जाती भी थी। बनारस तो कई बार गयी लेकिन जितनी बार गयी उससे कहीं ज़्यादा बार नहीं जा पायी। घर की ज़िम्मेदारी। खुद सास बनने के बाद भी अंत तक वो अपने बहू होने की ज़िम्मेदारी में पूरी तरह ही लिपटी रही।

 

जिसबार जाती आहा क्या उत्साह होता उनका। वहाँ से ही फ़ोन करती। विडीओ कॉल करके घाट दिखाती आरती दिखाती बाद में फिर फ़ोटो विडीओ भेजती भी। वहाँ जलाने के लिए मिट्टी के दीये घी बाती सब घर से ले जाती थी। घी तो खुद अपने हाथों से बनाती। अलग से रखती कि ये कार्तिक के लिए है।

 

जब नहीं जा पाती जो कि अक्सर ही होता तब भी बड़े उत्साह से घर पर मनाती थी देव दिवाली। जितने तुलसी के पौधे थे उनके जो कि दर्जनों थे सबके सामने दीये बस जलाती नहीं सजाती। भगवान के पास, गोसाईं के पास, आँवला के पास। पूरा जगमग जगमग हो जाता फिर फ़ोन करती बेटा बेटी को। विडीओ कॉल। देख लो तुमलोग भी। प्रणाम कर लो।

ये पहली देव दिवाली है उनके बिना। बिना समा चकवा के क़िस्सा के बिना। उनके रहने तक यादें वर्तमान लगती थी लेकिन उनके जाने के बाद यादें सच में अतीत लगने लगी हैं वो भी बहुत पीछे छूट गया, कभी न दुहरा पाने वाला अतीत।

 

ख़ैर कार्तिक पूर्णिमा की सबको बहुत बहुत बधाई।

 

 

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