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सोमवार, 30 मार्च 2020

!! कैसे करेंगे खुद को माफ़ !!


सड़कों पर पसरा सन्नाटा
घर में ख़त्म है आटा
शायद प्रकृति लौटा रही
अब तक जो था बाँटा

अनियंत्रित हो जाए जब हम
कर न पाए ख्वाहिशें कम
अपनी दुनिया में ही जब
घुटन से निकलने लगे दम

तब कमान संभालती प्रकृति
हाथ में ले लेती वो नियति
सब खंगाले सब संभाले
रखती न,फिर वापस कर देती

ये बीमारी ये भीषण लाचारी
दुनिया में फैली ये महामारी
हमारे खुद के किए ये कांड
हमारी खुद की ही ज़िम्मेदारी

हवा पानी जल कुछ न छोड़ा
हद से अधिक है उसे निचोड़ा
कुछ की काली करतूतों ने
आज मानवता तक को तोड़ा

लौटा देगी दुनिया वापस
प्रकृति करके उसे फिर साफ़
वो तो माँ है दरियादिल है
पर कैसे करेंगे खुद को माफ़

माफ़ी इस अराजकता की
माफ़ी मौन हुई मानवता की
माफ़ी भूखे गरीब बच्चे औरत
सड़क पर आयी सारी जनता की


गुरुवार, 22 फ़रवरी 2018

!! घर में अकेली औरत !!


औरों के सपनों को
अपनी उड़ान देती है
ऊपर चढ़ने को उनको
अपना आसमान देती है।

हँसी सबसे बाँट लेती
पर अकेले में रोती है
रोती भी क्या चुपके से
बस पलकें भिगोती है।

अपने ख़्वाब कहाँ अब
अरसे हुए बिसरा दिए
सबके ख़्वाबों के तले
उसने अपने दबा दिए।

शोर-शराबा, भागदौड़
समय उड़ा ले जाता है
जब कोई नहीं हो तब
मुश्किल समय आता है।

ख़्वाबों को,यादों को भला
किस किस को वो संभाले
घर में अकेली औरत कैसे
ख़ुद से ख़ुद को निकाले।

बुधवार, 7 फ़रवरी 2018

!! ईबुक से हुई बहुत सहूलियत माना पर मुश्किल है उसमें गुलाब छुपाना !!


ईबुक से हुई बहुत सहूलियत माना 
पर मुश्किल है उसमें गुलाब छुपाना 
कुछ बूँदें लुढ़क जाए जो किरदार पे 
ईबुक को आता नहीं उसको सूखाना।

तकिए के नीचे कैसे सहेजे इसको 
मुश्किल है सीने पे रखके सो जाना 
न अक्षरों को छू महसूस कर सकते 
आसान नहीं है इससे वो प्रीत पुराना।

चेतन सा जीवन से जुड़ा होता था 
अच्छा लगता था उसके संग रहना
सहेज के रखना, जिल्द चढ़ाना और 
पन्नों को मोड़कर बुक मार्क लगाना।

सफ़ेद पन्ने काले अक्षर भर नहीं थे 
उनके घर तो था अपना आना जाना 
नित नयी आती सुविधाएँ छिन रही 
रसभरी मीठी यादों वाला  ज़माना।

रविवार, 15 जनवरी 2017

!! कितना भी उन्नत हो या प्रगत प्रकृति के सामने सब पिछड़े हैं !!

बज रही हैं घंटिया लगातार
शाम से आपातकाल वाली।
सावधानी से गुज़ार लेनी है
आज की रात लम्बी-काली।।

भयंकर तूफ़ान के रास्ते में हैं हम
संभलकर रहने को कहा है हमें।
शीशे के पास बिल्कुल न जाए
स्थिति बिगड़ने पर टब में छुपे।।

ऐसी ही कितनी सलाह,हिदायतें
भेज रहे हैं नए-पुराने संगी-साथी।
whatsapp पर ही हो रही है ये
सारी कुशल-क्षेम से भरी पाती।।

मैंने चुपके से देखा खिड़की से
बारिश को सड़क साफ़ करते।
बिजली को चमक की टॉर्च ले
बारिश की भरपूर मदद करते।।

मानो जैसे आसमान से कोई
श्वेत सवारी में बैठ उतर रहा है।
जिसकी आगवानी में बादल
इतने ज़ोर-ज़ोर से गरज रहा है।।

काली रात चाँदनी हुई सहसा
चाँदनी हो जैसे ही वो इतरायी।
फिर से कालिमा ने ढक लिया
जैसे उसे ये अकड़ पसंद न आयी।।

बाढ़ व चक्रवात की चेतावनी में
लगातार डुगडुगी पीटी जा रही है।
पर बादल की बढ़ती गर्जना मानो
उन सबको बारबार चिढ़ा रही है।

ख़ूबसूरती हो या प्रबल प्रकोप
प्रकृति को पछाड़ नही सकता।
जो भी देते  हम सब प्रकृति को 
वही उधार तो है चूकता रहता।।

कितना भी उन्नत हो या प्रगत
प्रकृति के सामने सब पिछड़े हैं।
बारबार दिखा जाती वो आईना
फिर भी क्यों सब इतने अकड़े हैं?