कृष्ण भी हैं, राम भी हैं
गीता भी है, पुराण भी है
भगवान और संतों की
लिखी वहाँ पहचान भी है।
यूँ ही कोई बाबा या बापू
हमारा भगवान हो नही सकता
कितना भी भेष बदल ले रावण
साधु नहीं, वो ढोंगी ही रहता।
सनातन है ये परंपरा हमारी
सदियों से साधु संत हुए हैं
ज्ञान, वैराग की मूरत थे जो
देश से निकल अनंत हुए हैं।
अयोध्या, काशी, मथुरा क्या
गाँवों में भी देखें हैं कितने
रहन-सहन उनका जितना सादा
व्यवहार बोली में सच्चे उतने।
आज के बाबाओं को भगवान
हम सब ही मिल तो बनाते हैं
शास्त्रों का अनुशासन पसंद नही
इसीलिए बाबा की भभूति खाते हैं।
कृष्ण ने अर्जुन को कुरुक्षेत्र में
कोई भभूति लाकर तो नहीं दी
हर कार्य में थे स्वयं सक्षम पर
अर्जुन को ही युद्ध की आज्ञा दी।
ये धर्म अंधा पथ नहीं कोई
न ही भक्ति है अंधानुकरण
चलना ही हैं पीछे-पीछे हमें
तो करें विवेकानंद का अनुसरण।
बुद्ध, महाबीर, रहीम, कबीर
कमी कहाँ है संतों की यहाँ
पर उनकी खादी-खादी बोली
उनकी वाणी हम पढ़ते कहाँ।
स्वार्थ को भक्ति का नाम न दे
भक्ति तो थाती है मीराबाई की
तुलसी के मन की राम रसधारा
सुंदर संबंध सूरदास औ कन्हाई की।
सबरी की जीवन पर्यन्त प्रतीक्षा
तब जाकर उसे भगवान मिले
वेद की ऋचाएँ या देव कन्याएँ
तप के बाद ही घनश्याम मिले।
ये गुंडे, उचक्के, लोभी, लफ़ंगे
काम, क्रोध से पीड़ित दुर्जन मन
इंसान भी जिसे कह नहीं सकते
कैसे किसी ने मान लिया भगवन।
धर्म था, है और सदा ही रहेगा
धर्म के नाम पे ढोंग, धर्म नही है
बाबा हमारे तुलसी हैं,
ये कामी?
ना बाबा ना,ये बाबा नही है।
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