बुधवार, 27 सितंबर 2017

!! वो पुराना नवरात्रि का त्योहार - एक इमोशनल डीटाक्स !!


नवरात्रि के प्रथम दिन जब हम सुबह उठते तो पूरा घर धूप, अगरबत्ती, गाय के गोबर से लीपे आँगन की मिलीजुली खुशबू से महकता मिलता था। आँगन, बरामदा सब बुहारा, धोया, लीपा। बरामदे की चौकी पे अपनी कुश की आसानी बिछाए रामचरितमानस का पाठ करती दादी। किसी कमरे से दुर्गा सप्तशती के मंत्रों का सुंदर स्वर तो कहीं से सुंदर कांड के दोहों और चौपाइयों की सुमधुर ध्वनि। बच्चे और महिलाएँ कुछ-न-कुछ पाठ जरूर करते। कम-से-कम हनुमान चालीसा तो करना ही था। हाँ पर ये सब कोई बोझ या भारीपन नहीं लगता था। एक बहाव-सा होता था दशहरे का वो दस दिन कैसे उसमें प्रेम, उत्साह, उल्लास से सब सुखपूर्वक बहे जाते थे पता ही नहीं चलता। बाहर भीतर दोनों सुखद-सा माहौल होता, मन उसमें हिलोरे खाता रहता। ऐसा बहाव की वर्षों बाद आज भी मन उसमें बह जाता है।

हाँ, घर के पुरुषों को कभी कोई पाठ करते नहीं देखा लेकिन नहा धो सब सुबह लेते थे। पुरुष वर्ग से कोई एक जिसका यज्ञोपवीत संस्कार हो चुका हो, गोसाई घर में कलश स्थापन करता। कलश स्थापन करनेवाला कभी कोई बड़े होते तो कभी कोई कम उम्र भी। पीली मिट्टी से लीपे हुए घर में कुल देवता का सामने कलश स्थापना होती। कलश के नीचे रखा छोटा पीला जौ कैसे नौ दिनों में इतना बड़ा हो जाता और अपना पीलापन छोड़ हरा रंग ले लेता, ये मेरे लिए बचपन में किसी जादू से कम नहीं था। वैसे भी शांति, शुभता, त्योहार ये सब जीवन से भी पीलापन हटा उसमें हरियाली भर देते हैं।

इन सब चीज़ों से भागते-भागते ही तो आज हम इतने रूखे हो गए हैं। हर त्योहार, रस्म-रिवाज अंधविश्वास नहीं है। जो है उसे नकार दे पर कंकड़ के भ्रम में हीरे से भी हाथ धो बैठना समझदारी नहीं है।

पूरे नौ दिन दोपहर में हमारे पुरोहित आते और पाठ करते थे। हम बच्चों में से एक-एक कर सबकी बारी लगती थी पुरोहित जी की सहायता के लिए। जैसे पैर हाथ धोने के लिए पानी देना, उनकी पूजा सामग्री में कोई कमी हो तो माँ से माँगकर लाना वैसे सारा सामान पहले से रखा होता था। धूपदानी में रसोईघर से आग लाकर उसी समय देना होता था जिसमें धूप पड़ते ही ऐसा लगता जन्मों की मनहूसियत मिट गयी हो। जो बच्चा सहायता में होता उसका ही प्रथम अधिकार होता था उसदिन के प्रसाद पर। आगे उसकी इच्छा कि वो किसी से बाँटना चाहे। प्रसाद में केले के पत्ते पे मिस्री, चीनी और थोड़ा चावल, यही होता था। जिसमें से चावल अक्सर ही हम छाँट देते थे।

नवरात्रि के प्रथम दिन से ही घर में बिना लहसुन-प्याज का खाना बनना शुरू हो जाता। माँसाहारी भोजन तो वैसे भी कभी न कोई खाता था, न बनता था। हमारे यहाँ का रिवाज थोड़ा अलग था काले चने, हलुआ, पूरी ये सब नहीं बनता, ना ही कन्या पूजन। हाँ उपवास सब रखते थे। कोई फलाहारी, कोई सेंधा नमक के साथ, कोई एक समय खाकर, कोई सिर्फ दिन ढलने के बाद खाकर।  अपनी-अपनी शारीरिक और मानसिक सक्षमता के अनुसार।

देवी की पूजा होते हुए भी विष्णु की प्रधानता होती थी त्योहार में। नवमी के दिन हवन के साथ नवरात्रि का समापन होता और असली आनंद तो दशमी को आता था। उसदिन तो घर पर मानो छप्पन भोग ही बनता था। बने भी क्यों नहीं हमारे इष्टदेव भगवान राम ने बुराई के प्रतीक रावण पे विजय जो प्राप्त कर ली थी। सुबह से ही ब्राह्मण लोग आने लगते। जंत्री(जौ जो नौ दिनों के बाद पौधा बन चुका था अब) सिर पर रख आशीर्वाद देते। दक्षिणा में उन्हें चावल, दाल, बिना पकी सब्जी यही दिया जाता था। बाद में पैसे  भी दिए जाने लगे। बड़े से बर्तन में चावल भरकर मुख्य दरवाज़े पे रखा होता। देने के लिए दो ग्लास होते थे साथ में। बुजुर्ग ब्राह्मण के लिए बड़े ग्लास और छोटे-छोटे ब्राह्मण कुमारों के लिए छोटे ग्लास।

ऐसा नहीं है कि त्योहार विशेष सुविधा सिर्फ ब्राह्मणों तक सीमित थी। घर-बाहर काम करनेवाले हर व्यक्ति को दशहरे की छुट्टी मिलती, कभी दशहरा पे तो कभी दिवाली पे कपड़े, और मेला घूमने व जलेबी खाने के पैसे भी। काम करनेवाली को दादी नयी चूड़ी पहनने के लिए पैसे देती। घर का हर बड़ा सदस्य सब काम करनेवालों को कुछ-न-कुछ जरूर देता।

पास ही सरकारी स्कूल के सामने नवदुर्गा की मूर्ति स्थापित होती थी जिनकी आँखें छठे दिन खोली जाती थी। उसदिन तो अलग ही उत्साह दिखता। आज माँ का आँख खुलने वाला है, माँ दर्शन देंगी। सही भी था उत्साह हम जिसे प्रेम करें, पूजा करें, रोज दर्शन करें, चिंतन करे वो जब हमें देखे तो उत्साह तो स्वाभाविक ही है। हर घर में पूजा-पाठ, मंत्रोच्चरण। बड़ी रौनक़ रहती थी पूरे गाँव में।

एक फ़िल्म की तरह बचपन के त्योहार मानस पे चले जा रहे हैं और सुकून भी मिल रहा है मन को। लेकिन आज से रूबरू होते ही बहुत याद आती है उनदिनों की।

अब समझ में आता है कि वे निश्चल, निर्मल त्योहार जो सब मिलकर हँसी-खुशी उल्लास से मनाते थे वो असल में इमोशनल डीटाक्स होते थे। सारी चुप्पी, मौन, शिकवे, शिकायत को धो देने का सुंदर अवसर। मन की सारी नकारात्मकता को सकारात्मक ऊर्जा से भर देने की सहज प्रक्रिया। आज बहुत जरूरत है इंसान और इंसानियत दोनों को ऐसे इमोशनल डीटाक्स की।

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