मिट्टी के घर
गोबर की पुताइ
सिंदूर का स्वस्तिक
गीले रंगो की रंगोली।
एक आँगन में दीया
एक चौखट पे दीया
न लड़ियाँ न झालर
फिर भी सुंदर दिवाली।
सफेद दीवारों पे
नारंगी रंग की चित्रकारी
इंसानी शक्ल, फूल, पत्ते
दिल से निकली सच्ची कलाकारी।
नहाया-धोया तन
साफ-सुथरा मन
सूखे पत्तों को जमाकर
कर रहे प्रकाश उत्सव की तैयारी।
अमावस की कालिमा हटाने में
दीपों का उत्सव मनाने में
हमारे सैकड़ों दीये के संग-संग
उनके एक दीये की भी थी भागेदारी।
जो पकवान हमारे चूल्हे बनता
उनकी थाली में भी था पहुँचता
कोई भूखा न रहता किसी घर में
हर कोई होता हर किसी की जिम्मेदारी।
बचपन का गाँव मासूम दिवाली
समय ने सारी मासूमियत चुरा ली
गाँव तो है पर भोलापन गुम गया
हरओर बस सूखी-सूखी समझदारी।
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