जब सारा देश दीपावली का त्योहार मना अपने घरों से मकानों में लौटने लगते हैं। दीये साफ कर रख दिए जाते हैं, रंगोली हटा दरवाजों पे फिर से स्वागतम वाला पायदान बिछा दिया जाता है, बच्चे भी जल्दी-जल्दी बचेखुचे पटाखें खत्म कर लेते हैं। मतलब त्योहार के रंग से अपने असली रंग में आने लगते है, फिर से अपने काम-धंधे में मशगूल हो जाते हैं उस समय गाँव, शहर, महानगर, देश-विदेश में रहनेवाले बिहारी एक अलग उमंग में होते हैं। गाँवों से शहर की रूख कर चुकी नयी बयारें फिर से गाँव का रूख कर लेती हैं। सब रास्ता पकड़ने लगते हैं अपने-अपने पैतृक गाँव-घर का। जो नहीं जा पाते या तो जहाँ हैं वही माहौल बनाते हैं या दिवाली के बाद के छह दिन घर से दूरी की मायूसी और पिछले वर्ष के छठ की याद में ही निकाल देते हैं। जहाँ दीपावली के बाद लोगों का त्योहार विश्राम लेता है वही हमारा सबसे बड़ा त्योहार प्रारम्भ ही होता है।
दीपावली का त्योहार भी उतने ही उत्साह से मनाया जाता है पर इसके छह दिन बाद जो त्योहार आता है छठ का उसमें एक ऐसा अपनापन, आकर्षण होता है कि खींच ही लेता है सबको गाँव की ओर। कभी तन से, कभी मन से। पूरे साल प्रतीक्षा होती है छठ की। लोग छुट्टियाँ बचाकर रखते हैं छठ के लिए। ये वो त्योहार है जब इधर-उधर फैले तने, टहनियाँ, फूल, पत्ते अपनी जड़ों की ओर मुड़ ही जाते हैं।
कहने को तो त्योहार चार दिन का होता है-नहाय खाय, खरना, साँझिया अरक, भोरवा अरक लेकिन पूरा कार्तिक का महीना ही इसके आसपास घूमता है। छठ के लिए अनाज बिनना, धोना, सुखाना। अनाज को कूटना-पीसना। छठ के पकवान बनाने के लिए हाथों से मिट्टी के चूल्हे बनाना। हर काम बड़ा ही संगीतमय और उल्लास भरा होता है। औरतें छठ का गीत गाते-गाते सारे काम कर लेती हैं। ऐसा नही कि बस गाँव में रहनेवाली बेटी बहुएँ करती हैं। शहर में पले-बढ़े भी छठ में इसी रंग में रंगे होते हैं।
महीना क्या पूरे साल की प्रतीक्षा होती है। किसी का मुंडन माना है तो किसी की शादी का मन्नत, किसी के गोद भरने का मन्नत, बीमारी ठीक होने का मन्नत। खुशी या गम हर चीज जोड़ के रखते हैं लोग छठी मैया से।
नहाय खाय से शुरू होता है छठ पर्व। उसदिन से व्रत करनेवाले नहा-धोकर चार दिन की छठ पूजा का प्रारम्भ कर देते हैं। इस दिन विशेष रूप से कद्दू(लौकी)-भात बनता है। अगले दिन खरना होता है। पूरे दिन व्रती कुछ भी नही खाते। शाम के बाद खीर, रोटी, फल विशेष रूप से पूजा में भोग बनता है। बाकी अपनी-अपनी सामर्थ्य के अनुसार फल, मिठाई जो बना सके कोई। पूजा करके व्रती उस प्रसाद को लेते हैं उसके बाद दो दिनों का निर्जला उपवास रहता है।
अगला दिन होता है साँझिया अरक। इसदिन ढलते सूर्य की पूजा होती है। पानी में खड़े होकर घर में शुद्धता व प्रेम से बने पकवान, फल, फूल, धूप, दीप आदि से सूर्य को अरक दिया जाता है।
जब व्रत करनेवाली महिलाएँ नयी सूती साड़ियों में और जो सुहागन है वे रंगीन साड़ियों में सज कर जब तैयार होती है तो लगता है प्रकृति ने कार्तिक में फागुन लेकर आ गयी हो। छठ का घाट, सुहागन स्त्रियाँ और उनका सूरका माँग। सूरका माँग होता है जिसमें ललाट से नाक तक नारंगी रंग की सिंदूर की पतली रेखा होती है। नाक में नाथ, कान में कुंडल, बिंदी, सिर पे पल्लू। क्या होती होंगी देवियाँ पता नहीं पर आज ये सौंदर्य की देवियाँ लगती हैं।
कहते हैं न कि बाँझ क्या जाने प्रसव की पीड़ा। वैसे ही जो इन पलों से गुज़रे ही नहीं है, जिए ही नहीं हैं इन पलों में वे भला इसकी जीवंतता को क्या जाने। उन्हें कभी ये गंवारपन लग सकता है तो कभी पीछड़पन कभी तो लोग इसे स्त्रियों का शोषण भी कह देते हैं। छोड़े इन बुझे-सूखे लोगों को।
वैसे छठ अक्सर तालाब किनारे या नदी किनारे होता है लेकिन जहाँ सहूलियत नहीं होती या लोग अपनी सहूलियत के लिए आँगन में ही गड्ढा बना उसमें साफ़ पानी डाल छठ कर लेते हैं। नदी किनारे हो या घर के आँगन में न व्रत की पवित्रता और मोहकता में कोई कमी आती है न व्रती के उत्साह और उल्लास में।
लेकिन घाट का भी एक अलग सौंदर्य होता है। नदी-तालाब किनारे हर जाति, हर वर्ण का एक घाट होता है। घाट पे सीढ़ियाँ बनी होती है। उन सीढ़ियों को घर के लड़के केले के पेड़, लाइटें आदि से सजाते हैं और लड़कियाँ उसपे दीप, फूल, पत्ती, अचीन से सँवारती हैं। उन सीढ़ियों पर ही बाँस के सूप में ठेकुआ, कसार, नारियल, केला, पान का पत्ता, कसैली आदि कई सामग्री बड़े ही करीने से रखी होती है और सबके ऊपर एक जलता दीया। जिसके न बुझने का खास ख्याल रखा जाता है। घाट पे मिट्टी का हाथी भी होता है जिसके लिए सबसे ज्यादा आकर्षण होता है बच्चों में। घाट के आसपास बच्चे पटाखे-फुलझड़ियाँ जलाते रहते हैं जो दिवाली के बचे-खुचे पटाखे नहीं होते। या तो वे बचाकर रखे गए होते हैं या छठ का हिस्सा अलग होता है।
जैसे ही सूरज ढलने को होता है हर सूप उठा सूर्य को अरक दिया जाता है। अरक के समय उसपे दूध डाला जाता है। पता नहीं कोई इसे अब दूध की बर्बादी भी कहने लगे लेकिन हमारे गाँव में छठ में दूध चढ़ाने से अभी तक कोई कंगाल नहीं हुआ। फिर बड़े से टोकड़े में सारी सूपें रख दी जाती हैं और घर का बेटा उस टोकड़ी को सिर पे रखकर घर लाता है। चाहे वो बेटा किसान हो या कलेक्टर दोनों इसे अपना सौभाग्य ही मानते हैं।
छठ पूजा के अंतिम दिन होता है भोरवा अरक। तीन बजे सुबह से ही लोग घाट पहुँचने लगते हैं। ठंड शुरू हो चुकी होती है उससमय फिर भी अपनी श्रद्धा के हिसाब से कोई दंड देते घाट जा रहा होता है तो कोई ब्रह्म मुहूर्त से ही पानी में खड़ा होता है। ये सब बातें उन पढ़ेलिखे अनपढ़ों को बड़ी पीड़ा देती हैं जो अपने माँ-बाप को खुशी-खुशी वृद्धाश्रम छोड़ आते हैं।
अंधरे में जगमगाता नदी तालाब का किनारा मन को सुकून देता है कि कितनी भी भागम भाग हो जाए गाँव आकर कुछ तो सुकून मिल ही जाता है। दीपकों की रोशनी पानी में पड़कर रोशनी दुगुनी कर देती है जैसे बुज़ुर्गों के पास पहुँचकर ख़ुशियाँ। सूर्योदय से पहले सारे व्रत करनेवाले पानी में होते हैं। जैसे ही लालिमा दिखती है अरक देना शुरू हो जाता है।
उम्र में छोटे लोग व्रत करनवेवाले से आशीर्वाद लेते हैं। टीका लगवाते हैं। प्रसाद लेते हैं। फिर घाट का सारा सामान समेट लौट चलते है सब अपने-अपने आँगन। किसी के सिर पे टोकड़ी, किसी के हाथ केले का घौंद, किसी के हाथ में गन्ने, किसी के हाथ मिट्टी का हाथी, किसी के हाथ व्रती के कपड़े, किसी के हाथ प्रसाद। कोई भी छठ घाट से ख़ाली हाथ नहीं लौटता।
घर आकर सबसे पहले व्रती को पारन कराया जाता है। फिर पूरे दिन ही दावत होती रहती है। रिश्तेदार, मित्र आते जाते रहते हैं। बेटी-बहुओं का मायका ससुराल आना जाना भी होता है इसदिन। प्रकृति, संबंध, स्वास्थ्य, परम्परा, संस्कृति, हर्ष, उल्लास कितनी गिनती करे सबको दृढ़ता प्रदान करनेवाला एक सम्पूर्ण त्योहार है छठ।
छठ पर्व की सभी को शुभकामनाएँ। हमारी ये पहचान हमारे साथ बनी रहे। अपनी इन जड़ों को न हम छोड़े न हमसे ये छूटे।
0 टिपण्णी -आपके विचार !:
एक टिप्पणी भेजें