शिव जी की निकली बारात
दुल्हा सजे हैं मुंडमाल से
साँपों का मौर,विभूति अंगराज
वस्त्र बना है व्याघ्र छाल से।
साँप का कुंडल, साँप का कंकन
साँप का ही बनाया जनेऊ
सिर पे गंग और चंद्र की शोभा
हाथ में डमरू त्रिशूल दोउ।
कल्याण के धाम कृपालु शिव
बैल विराजे फिर बारात चली
भूत, प्रेत की जो दूर थी टोली
शिव आज्ञा से दुल्हा संग हो ली।
अद्भूत दुल्हा अनुपम थे बाराती
प्रेत,पिशाच,योगिनी की जमात
कोई मुख हीं कोई हाथ हीन तो
किसी के कई-कई थे मुख हाथ।
हाथ कपाल और देह ख़ून लपेटे
बारात नहीं ये तो कौतुक का दर्शन
भिन्न-भिन्न पशुओं से मुख लिए
गण दुबले,मोटे, पावन, अपावन।
पहुँची बारात हिमालय के घर जब
देख दुल्हा कोई पास न आता
मैना जो आयी परिछावन करने
मूर्छित हो गयी देखा जो जमाता।
नारद के समझाने,बुझाने के बाद
सारी पुरानी कथा बतलाने के बाद
प्रसन्नता आयी मिटा जब विषाद
हुआ फिर बारात सराती में संवाद।
रूप,वेश, भाव-भंगिमा में चाहे
कैसी भी लग रही थी ये बारात
पर इस दुल्हा की दुल्हिन से ही
सिया भी माँगती हैं अहिबात।
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