बेसहारा बुढ़ापा-सी लग रही थी
बिन पत्तों के पेड़ पे बूँदें जो ठहरी
बर्फ़ में धवल होने को तैयार थी
कल सूरज के संग जो थी सुनहरी।
ठूँठे पेड़ की पनाह और सर्द हवा
जैसे ग़रीबी में कोई बीमारी गहरी
पेड़ से पीड़ा छुपा माँ-सी कहती
मैं ठीक बिल्कुल तू अपनी कह री।
निभा रही सती-सा साथ संग पेड़ के
जब तक प्राण है पार करेगी न देहरी
जाएगी जब आएगा समय जाने का
समय से पहले ढल सकती न दुपहरी।
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