मार्ग में फूल बिछाती सबरी
था उसका ये रोज़ का काम
कब से कर रही थी प्रतीक्षा
जाने कब आ जाए श्रीराम।
नयन के आगे चरण कमल थे
जिनका ध्यान नित धरती थी वो
मन में उमंग, आँखों में अश्रु
प्रेमानंद में डूबती उतरती थी वो।
भक्तों के सब भयहारी चरण
नेत्रों के उसके विषय थे आज
जिन चरणों की धूल लेने को
आए थे छोड़ भरत साम्राज्य।
चरण से नयन हटे ही नही
कैसे करे वो प्रभु अगवानी
जिनकी प्रतीक्षा में बीता जीवन
पूछ न पा रही जल पानी।
चरण से नयन उठाकर उसने
उठकर चाहा प्रभु को बिठाए
नयन ने देखे जो राजीव नयन
अब भला कैसे वो नयन हटाए।
त्रिभुवन का सौंदर्य समेटे
मनोज को मानो लजाते
समस्त रूप, गुण के खान राम
नयन इनपे जाते तो लौट कहाँ पाते।
कैसे बिठाए कैसे बुलाए
कैसे प्रभु को आश्रम पधराए
उसकी बात सुने न नयन
जो अब तक प्रतीक्षा में थे पथराए।
बूढ़ी आँखें बूढ़ी काया
मानों उसमें नवजीवन आया
मन को मनाके, नयन समझाके
प्रभु को भीतर आश्रम बिठाया।
लोट लोट के चरण पकड़ लूँ
या करूँ उनकी स्तुति औ गान
ना ना प्रभु हैं वन से आए थके
देती उन्हें पहले जलपान।
आचमन करा के जल पिलाया
फिर लेकर आयी वो मीठे बेर
पेड़ के पके, प्रेम से कटे
जिमाने लगी प्रभु को झूठे बेर
किसका प्रेम अधिक है
ये किस विधि कोई जाने
भक्त-भगवान का अनुपम नाता
ये जड़ मति कैसे पहचाने।
हाथों में है बेर लिए और
आँखों से झर रहा आनंद
कैसे समेटे मन के भाव
सामने बैठे रघुकुल चंद।
क्या शोभा है उस कुटिया की
जिसमें विराजे साकेतबिहारी
प्रेम के बंधन आज बँधे हैं
सकल लोक भव बंधनहारी।
भाव के भूखे हैं प्रभु
छप्पन भोग से उन्हें क्या काम
कुटिया बन गयी तीरथ धाम
भिलनी के घर आए राम ।
था उसका ये रोज़ का काम
कब से कर रही थी प्रतीक्षा
जाने कब आ जाए श्रीराम।
नयन के आगे चरण कमल थे
जिनका ध्यान नित धरती थी वो
मन में उमंग, आँखों में अश्रु
प्रेमानंद में डूबती उतरती थी वो।
भक्तों के सब भयहारी चरण
नेत्रों के उसके विषय थे आज
जिन चरणों की धूल लेने को
आए थे छोड़ भरत साम्राज्य।
चरण से नयन हटे ही नही
कैसे करे वो प्रभु अगवानी
जिनकी प्रतीक्षा में बीता जीवन
पूछ न पा रही जल पानी।
चरण से नयन उठाकर उसने
उठकर चाहा प्रभु को बिठाए
नयन ने देखे जो राजीव नयन
अब भला कैसे वो नयन हटाए।
त्रिभुवन का सौंदर्य समेटे
मनोज को मानो लजाते
समस्त रूप, गुण के खान राम
नयन इनपे जाते तो लौट कहाँ पाते।
कैसे बिठाए कैसे बुलाए
कैसे प्रभु को आश्रम पधराए
उसकी बात सुने न नयन
जो अब तक प्रतीक्षा में थे पथराए।
बूढ़ी आँखें बूढ़ी काया
मानों उसमें नवजीवन आया
मन को मनाके, नयन समझाके
प्रभु को भीतर आश्रम बिठाया।
लोट लोट के चरण पकड़ लूँ
या करूँ उनकी स्तुति औ गान
ना ना प्रभु हैं वन से आए थके
देती उन्हें पहले जलपान।
आचमन करा के जल पिलाया
फिर लेकर आयी वो मीठे बेर
पेड़ के पके, प्रेम से कटे
जिमाने लगी प्रभु को झूठे बेर
किसका प्रेम अधिक है
ये किस विधि कोई जाने
भक्त-भगवान का अनुपम नाता
ये जड़ मति कैसे पहचाने।
हाथों में है बेर लिए और
आँखों से झर रहा आनंद
कैसे समेटे मन के भाव
सामने बैठे रघुकुल चंद।
क्या शोभा है उस कुटिया की
जिसमें विराजे साकेतबिहारी
प्रेम के बंधन आज बँधे हैं
सकल लोक भव बंधनहारी।
भाव के भूखे हैं प्रभु
छप्पन भोग से उन्हें क्या काम
कुटिया बन गयी तीरथ धाम
भिलनी के घर आए राम ।
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