सोमवार, 9 अप्रैल 2018

कहीं जाना है क्या?

बच्चे टीवी देख रहे थे। वो किचेन में खाने की तैयारी कर रही थी। सब्ज़ी गैस पर चढ़ा कर आँच धीमी कर वो अब आटा गूँथ रही थी। आटा गूँथते समय वो बैठकर गूँथती थी नहीं तो उसे संतुष्टि नहीं होती। जब तक मसल-मसलकर आटा न गूँथे उसे लगता था कि ठीक से गूँथा नहीं। अब रोटी सही से नहीं बनेगी। वो आटा और गूँथने के लिए पानी लेकर टी वी के पास ही आ गयी। वही नीचे क़ालीन बिछी थी वही बैठ गयी। आटा गूँथते-गूँथते उसकी नज़र पास के ग्लास के फूलदान पे पड़ी जिसमें उसने ख़ुद को देखा। कैसी बेतरतीब सी बनी है वो। बाल ऐसे बिखरे जैसे कई दिनों से कंघी नहीं किया। क्या ये मैं हूँ? उसने मन ही मन सवाल किया।
आटा गूँथ चुका था। वो किचेन में गयी। आटा ढककर रख दिया, सब्ज़ी चलायी और बेडरूम की तरफ़ लगभग भागते हुए गयी। जाकर ड्रेसिंग टेबल के सामने बैठ गयी। सच में ये बिखरी,बुझी-सी मैं ही हूँ। पर ऐसे कैसे हो गया। मैं तो ऐसी नहीं थी।

"माँ मेरी नीली वाली जूती नहीं मिल रही है, कामवाली आंटी कल इधर सफ़ाई कर रही थी न?"
"वही होगा। नहीं तो कोई और पहन लें"
"यहाँ नहीं है। कोई और कैसे पहन लूँ। सूट से मैचिंग होगा वही पहनूँगी न"
"अरे कालीवाली पहन ले वो सब सूट पे चल जाता है"
"कल भी वही पहना था"
"इतने नख़रे मत रख नहीं तो कल को ससुराल जाएगी तो दिक्कत होगी"

वो अचानक अतीत से वर्तमान में आ गयी।बुदबुदाने लगी,"सच कहती थी माँ। दिक्कत होगी।"
उसने कंघी उठा ली। धीरे-धीरे शीशे में अपने को ढूँढती बाल बनाने लगी। बाल बनाकर काजल लगाया,बिंदी लगायी। हल्की-सी लिप्सटिक भी लगायी। दुपट्टे को कमर से खोल कर अच्छे से कंधे ले ले लिया।

मैं अपना ख़्याल क्यों नहीं रखती। उसने ख़ुद से पूछा।
किसी ने रोका तो नहीं है मुझे।
वो अभी ख़ुद से बातें कर ही रही थी तभी उसकी बेटी न आकर उसे झकझोरा।
मम्मी कब से बुला रही हूँ आपको सुन क्यों नही रहीं? पापा आ गए।

वो ख़ुद को ख़ुद से निकाल कर कमरे से बाहर आयी।
"क्या आज कहीं जाना है क्या?"
"नहीं तो"
"नहीं, तुम तैयार होकर घूम रही हो इसलिए लगा मुझे"
"तैयार होकर?"
वह कुछ सोचते,बुदबुदाते किचेन की ओर मुड़ गयी चाय बनाने।



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