पता नहीं क्यूँ मुझको
बुढ़ापा इतना डराता है
गाहे-बेगाहे चलते-फिरते
अकेला घूमता मिल जाता है।
लोगों की तलाश में
कुछ कहने-सुनने की आस में
दर्द होता है लहजे में
और कोई होता नहीं है पास में।
जिनके सलामत हैं हाथ-पैर
अकेले ही निकल पड़ते सैर को
जो चल नहीं सकते वो तो
बस उम्मीद से देखते हर ग़ैर को।
नाम पूछा मुझसे आज और
माफ़ी भी माँग ली साथ-साथ
याद नहीं रह पाते हैं नाम
कहते हुए पकड़ लिया मेरा हाथ।
उनके हाथों की पकड़ मेरे
दिल तक इसतरह है पहुँची
स्पर्श अभी भी वही-का-वही
जबकि वो कब की जा चुकी।
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